बेटी (दोहे)
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बेटी घर के बाग की , एक कली मासूम।
पाकर झोंका प्यार का, झुक झुक जाती झूम।।
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जैसे चिड़िया बाग की, होती है पहचान।
वैसे ही तो बेटियाँ, होती घर की शान।।
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किरण सुबह की बेटियाँ, और गुनगुनी धूप।
ये ढल जाती शाम में, लिए चम्पई रूप ।।
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बेटी के जिस घर पड़े, कोमल पावन पाँव।
वहाँ सुखों के वृक्ष की, फैले शीतल छाँव।।
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परियाँ उतरी स्वर्ग से, धर बेटी का रूप।
नहा रोशनी से गए, मन के अंधे कूप ।।
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घर आँगन महका रही, बेटी बनकर फूल।
छूकर इनके पाँव को, खिले धरा की धूल।।
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आज नहीं तो कल सही, समझेंगे सब लोग।
बिन बेटी संभव नहीं, खुशियों से संयोग।।
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भ्रूण रूप में ही अगर, मरती बेटी आज।
तरसेगा नारी बिना, कल को यही समाज।।
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बेटी के प्रति हम रखें, नेह और सम्मान।
भर पाएँ सपने तभी, उसके उच्च उड़ान।।
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हो बेटी के जन्म का, बेटे - सा सम्मान।
कहला सकता है तभी, भारत देश महान।।
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- सुरेश चन्द्र "सर्वहारा"