डोर / dor
0यह डोर है प्रेम की या बंधन जीवन का,
हूँ मैं तुमसे बंधी, या यह बंधन है मजबूरी का,
क्यों यह बंधन केवल मुझे लुभाता है,
क्या कोई डोर तुम्हें, मेरी ओर नहीं खींच पाता है?
मैं विस्मित सी सोचती रहती हूँ,
क्या तेरा मेरा केवल यह ही नाता है!
परिवार, बच्चे केवल तुम्हें यही भरमाता है?
क्या मेरा विचार, मेरा मन तुम्हें नहीं लुभाता है?
अगर मेरा केवल है इतना ही मोल,
तो बांधी ही क्यों थी तुमने यह डोर,
उड़ने दिया होता उन्मुक्त गगन में,
सूर्य के उस ओर,
भस्म हो भी जाती, पर ग्लानी तो नहीं खेंचती मुझे अपनी ओर,
खुश तो होते हम तुम, गर तुम होते उस ओर और मैं इस ओर,
गर न बंधे होते इन बेड़ियों जैसी डोर से, स्वतंत्र होते हर छोर से।।।