ग़ुल समझती है
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ज़रा तितली क्या आ बैठी उसके कांधे ,
नादां को देख ख़ुदको गुल समझती है ,,
आफत ये मासूमियत हाय ,क्या गलत
करती है ? जो खुदको गुल समझती है ,,
कभी गुजरे है आस्तां से तो महक जायें ,
पढ़ जायें नज़रे, ईमान से तो बहक जायें ,,
किया अच्छा खाद-पानी तूने ऐ बागबान ,
इश्क़ पे मेरी वो खुदको गुल समझती है ,,
ये वहम भी उसका , क्या खूब वहम है ,
सिफ़र फिराक़ में है, , क्या ख़ूब वहम है ,,
मेरे क़सीदे वाले शेर पर लरज जाती है ,
वो शोख भरम में खुदको गुल समझती है ,
है डाली सब्ज़ ओढ़नी, तौबा क़यामत ,
रंगी है अंगिया गुलाबी ,तौबा क़यामत ,,
चलता फिरता बनी है गुलदस्ता आज ,
संवर के सरापा ख़ुदको गुल समझती है ,
भवरें का अहद है कि गुल पे मर जायें ,
भवरें को कोई कहे की गुल पे मर जायें ,,
एक शहादत पे , दिल की हालातों पे मेरी ,
किसी बे-गुमानी में ख़ुदको गुल समझती है ,,
बाकलम - गौरव "सिफ़र '