हर आदमी भटकता है इस जहां में
0हर आदमी भटकता है इस जहां में,
कभी धरती पर कभी आसमां में,
उस बला की तलाश में,
जिसे सुकून कहते हैं तेरी मेरी जुबां में।
मिल सकता गर उधार में,
मैं भी ले लेता मन भर झोली पसार के,
या फिर मोल भाव करता उसका बाजार में,
चुरा सकता तो चुरा भी लेता,
भाग जाता दूर कहीं उठा के।
गर बंटता यह खैरात में,
तो बैठ जाता पंगत में,
इसके इंतज़ार में,
झोली फैला बटोर लेता मैं भी थोड़ा सा इसकी चाह में।
यह तो ऐसी शह है यारों,
जो ढूंढने से नहीं मिलती है,
यह खोदनी पड़ती है,
दूर दिल के खदानों में,
या मिलेगी तुम्हें ईश्वर के गानों में,
माँ के आँचल में तो ज़रा खोज के देखो प्यारों।
सुकून भरपूर मिलेगा, कहीं भी भटकना नहीं पड़ेगा।।