आईन-ए-'इश्क़।
0मौसमों के भी असर, अब बदलने लगे हैं,
देख कर मुझे मेरी मुहब्बत के साथ,
कुछ पहचाने शक्स भी मुझसे जलने लगे हैं,
खुदा से कभी दोस्ती महंगी नही पड़ती यारों,
ये खुदा की रहमत ही है मुझपर,
जो पशेमाँ हो कर लोग,
अपने हाथों को मसलने लगे हैं,
रहा इश्क़े-ए-बहार ये अहसान तेरा,
जो प्यार के बादलों को बरसा दिया,
मगर इस बरसात मे भी,
कई आँखो से लहु के अश्क निकलने लगे हैं,
मैं करू गुरूर उस पर,
तो ए खुदा मुझे माफ करना,
इसी गुमान से ही,
मेरे ज़ख्मे दिल अब भरने लगे है,
हुआ था दिल और ज़हन जो कभी मर्दुम-बेज़ार सा,
उसके आने से, कैफ़ियत-ए-हयात अब बदलने लगे हैं,
मुहासिब के बिना इश्क करना कहा आसान था,
तदब्बुर से तामिल इश्क के नतीजे फलने लगे है,
अम्बालवी ने देख ही लिये थे,
गिर्द-ओ-नवाह के हालात उस शहर के,
जो शहर एहतिमाले, शुबा करते था,
आज़ार-ए-'इश्क़ पर,
वहां तस्वीर-ए-'इश्क़ पर लोग ,कसीदे पढ़ने लगे है।

Beautiful lines... You became a great poet..