Badastoor Chalna Zaroori Hai Kya?
1बादस्तूर चलना ज़रुरी है क्या
मोहब्बत् में बिछड़ना ज़रुरी है क्या
क्यों होता है
जो भी होता है यहाँ
चाँद का निकलना
निकल कर ढलना ज़रुरी है क्या
हम किस्सा मोहब्बत् का सुनते रहे
और रात गुज़रती रही
कुछ भी न बदला
परवाना मरता रहा
शमा यूँ ही जलती रही
प्यार में तड़पना
तड़प कर यूँ मिटना ज़रुरी है क्या
कुछ तो है तेरे मेरे दरमियाँ
आज भी है जो रवाँ रवाँ
तू समझती है वो एहसास
या मैं समझता हूँ
हर कोई समझ ले
हर एक बात ज़रुरी है क्या
वक्त्त नाम है बदलने का
मयखाने में दाैर चला है संभलने का
लड़खड़ाये जो उन्हें
मिल गया सहारा
तेरे प्यार में हम न उठ सके दोबारा
लड़खड़ा कर जो गिरे
गिर कर संभलना ज़रुरी है क्या
खामोश ये हवा कुछ कहती है
सागर से मिलने को
देखो नदी बहती है
खामोशियों की भी होती है
अपनी ही ज़बाँ
जो न कह पायें
कभी कभी कर देती वो बयाँ
मैं करता नहीं ज़ाहिर
तो भूल गया तुझे ज़रुरी है क्या.......
Very nice poem..sensitizes to the power of silence in communicating and sensitizes to understand the unsaid..Great Work Raj !!.