मज़दूर
0देखिये कोई यहाँ, थका, पसीने में चूर है ,
ख़िदमत को हाज़िर दुनिया ये मज़दूर है ,
जिसके करम पे चले है चाक जमाने का ,
भूखा है ये, उस ही के मुँह से रोटी दूर है ,
कभी अपना पसीना वापस वो मांग बैठा ,
समंदर भी सुख जायेगें, किसको गुरूर है ,
मई की पहली तारीख़ है शान मे जिसकी ,
बस खबर नहीं उसे,सबको पता जरूर है ,
अपने वारिसों को वो दिखा के बुलंद इमारतें ,
धुप में खड़ा बताता,ये मेरी मशक् का नूर है ,
जंग वो सारी जीतके लाया,निगल के लोहा ,
जिन्हें हमने तख़्त पर बैठाया,यूंही मशहूर है ,