मन को छलते
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मन को छलते
नवगीत
डॉ सुशील शर्मा
मन को छलते
झूठे सपने
फिर भी मन को लगते प्यारे।
नव वसंत आ कर
मुस्काया।
मनको फिर भी चैन
न आया।
ठंडी है रिश्तों
की गर्मी।
सूख रही वाणी
की नरमी।
मन पर जल प्रपात के जैसे
गिरते हैं पीड़ा के धारे।
सबके अपने
अलग राग हैं।
अपने सुख अपने
चराग हैं।
रखे दीप वह
तमस रात में।
आस रखे हर
बुरी बात में।
झुलस रहा तुलसी का विरबा
जंगल के सीने पर आरे।
दिन अब कितने
बेचारे हैं।
शुष्क सिसकते
गलियारे हैं।
जंगल का गणतंत्र
सिसकता।
सत्य बिलखता
झूठ चहकता।
गली गली में आज ठहाका
लगा रहे हैं ये अँधियारे।