नदी हूँ मैं
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बहती हुई नदी हूँ मैं
कहीं पत्थरों के संग अठखेलियां करती
कहीं इठलाती तो, कहीं बलखाती आगे बढ़ जाती
कहीं सीढ़ी सी उतरती तो, कहीं किसी ढाल से फिसलकर कुछ रुक सी जाती
कहीं किसी घाटी में कलकल करती तो, कहीं प्रपात बन सिंहनाद सा घोष करती
कहीं राह के पत्थरों को काटकर खुद ही रास्ता बनाती, तो कहीं गड्ढों में शांत झील सी हो जाती
कहीं नहरों में बांटकर धरा को धानी चुनरी उड़ाती, तो कहीं मर्यादा तोड़ सैलाब बन सब बहा ले जाती
कहीं कोई मुझे बाँधने की कोशिश करता तो, कहीं कोई मेरा आँचल मैला करता फिर भी मैं अपने गंतव्य पर बढ़ती जाती
राह में मिलती कुछ अपनों से संगम करती, और फिर आगे बढ़ जाती
वो असीम सागर है मेरा अंतिम पड़ाव जिसकी गोद में, मैं जा समा जाती
उसका और मेरा एक अंश और अंशी का सा नाता है
वही फिर मुझे बादल सी ऊँचाई देता और फिर पुनः नदी स्वरूप में लाता है
वही है जो मुझे निरंतर शाश्वतता देता और प्रवाहमान बनाता है
इसलिए उसके साथ में, मैं हो निरंतर बहती जाती ।
ज्योति आशुकृषणा