Badle Huye Se Log
8कभी ये बदली सी धरती,
तो कभी बदला सा आसमान देखता हूं।
वफा से कभी जो रहती थी गुलजार,
उन गलियों को मैं आज सूनसान देखता हूं।
खुदा से तो क्या खुद से ही दूर,
हर एक इन्सान देखता हूं।
कल तक थे जो घर,
आज मैं वो पत्थर के मकान देखता हूं।
जिन्दा थे जिनमें दोस्ती के कारवां,
आज उन्ही दिलों मे क्यूं मैं शमसान देखता हूं।
नन्हें से कदमों से चलते थे, दौडते थे हम,
उन राहों पर मैं मिटे से कुछ निशान देखता हूं।
बदलें है जो लोग फकत जमाने की रददो बदल में,
अधूरे उन्हीं के फिर भी मैं अरमान देखता हूं।
रोकता हूं, मैं जितना छलक ही आते है अश्क,
सपनो को जब हालातों से परेशान देखता हूं।
- डॉ रविन्द्र कुमार
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