स्मृति
2स्मृति
ठहर -सी गई थी मैं
जब सहृदयता से
ले आए थे तुम
वो मनोभाव
आकण्ठ अनुराग का
स्पष्ट थी निहित कांति
उन आबनूसी आँखों में
हर अक्स पढा था मैने
विस्तृत मिली आफ़रीन में
एक भीनी खुश्बू
जो हर क्षण को
रत्न-कंचन का स्वरूप देती
नीरव हृदयाँचल में
घनी घटाओं की
कौंधती हुई बिजली
बसंत की तिमिर निशा में
रोम को सिहराती
बयाँ हुई
कुछ अनसुनी
अंतर्मन की ही,छाया सी
प्रभात का भी नया स्फुरण
रश्मियों की भी नवेली दिव्यता।
स्मृतियाँ भी कर देती हैं
रक्त-संचार
अनायास ही जीवंत।
कितनी आतुरता से
देखा था उस दिन
बाँस के कोंपलों में
जहाँ वो चिडियों का जोडा
बेफिक्र हो
मन-मञ्जूषा की समतल धरा पर
चल रहे इसरार को
अपनी चहचहाहट से व्यक्त कर रहा था।।
कृति सोनिया
Too good.. Bk bk
Too good.!!
Keep going..!! :) <3.